Ashadhi Ekadashi 2025: आषाढी एकादशी कब है? जाने उसका महत्त्व, भक्त पुंडलिक कथा, पुजा विधी, स्टेटस

              
Ashadhi Ekadashi 2025: आषाढी एकादशी कब है? जाने उसका महत्त्व, भक्त पुंडलिक कथा, पुजा विधी, स्टेटस
आषाढ़ी एकादशी निमित्त सर्वांना हार्दिक शुभेच्छा


Ashadhi Ekadashi 2025: आषाढी एकादशी जिसे 'देवशयनी एकादशी' भी कहा जाता है। इस साल 2025 में आषाढी एकादशी 6 जुलाई को मनाई जाएगी। यह दिन भगवान विष्णु का सोने (शयन) जाने का प्रतीक है। और चातुर्मास की शुरुआत का भी प्रतीक है। इस ब्लॉग आर्टिकल में हम आषाढी एकादशी कब है? उसकी पूजा विधि और भक्त पुंडलिक की कथा और स्टेटस के बारे में जानेंगे।

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    आषाढी एकादशी कब है?


    आषाढी एकादशी हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में मनाई जाती है।

    इस एकादशी को हरि-शयणी देवशयनी और पद्यनाभा एकादशी भी कहा जाता है।

    आषाढी एकादशी इस साल 2025, 6 जुलाई को है। एकादशी का पारण समय 7 जुलाई की सुबह 5:30 से 8:15 बजे तक रहेगा।

    यह एकादशी हिंदू महा आषाढ़ी 
     यानी जून-जुलाई के शुक्ल पक्ष के चंद्र दिवस को आषाढी एकादशी में मनाया जाता है।

    तेलुगु में इसे टोली एकादशी भी कहा जाता है। हिंदू रक्षक भगवान विष्णु के उपासक वैष्णव के दिलों में इस पवित्र दिन के लिए एक विशेष महत्व होता है।

    आषाढी एकादशी का महत्व


    Ashadhi Ekadashi 2025: आषाढी एकादशी कब है? जाने उसका महत्त्व, भक्त पुंडलिक कथा, पुजा विधी, स्टेटस
    भगवान विष्णू का शयनकाल 

    आषाढी एकादशी से ही पंढरपुर में वारी तीर्थ यात्रा शुरू होती है। 
    यह दिन भक्तों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि यह भगवान विष्णु के  विश्राम का समय है, यानि कि भगवान विष्णु का शयनकाल की शुरुआत है और चातुर्मास का प्रारंभ भी इसी समय होता है।

    आषाढी एकादशी से ही भगवान विष्णु का शयनकाल शुरू हो जाता है। और वे 4 मास के लिए योग निद्रा में चले जाते हैं ।

    इसलिए इस समय में विवाह जैसे शुभ कार्य के लिए समय उचित नहीं माना जाता है।

    इस दिन में लोग उपवास करते हैं व्रत रखते हैं और भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा करते हैं।

    पूरी रात में लोग भजन और कीर्तन, प्रार्थना करते हैं।

    भगवान विष्णु दूध के ब्रह्मांडीय सागर  क्षीरसागर में शेषनाग के ऊपर सो जाते हैं।
    इसलिए हरि-शयानी एकादशी और शयन एकादशी, देवशयनी एकादशी यह सभी एकादशी एक ही दिन के नाम है।

    4 महीने होने के बाद हिंदू महीने के कार्तिक मास यानी कि अक्टूबर-नवंबर में शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन पर प्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु अपने शयनकाल से बाहर आते हैं।

    चातुर्मास एक हिंदू त्यौहार है। जो बरसात के दिनों में आता है। इसलिए शयनी एकादशी चातुर्मास की शुरुआत का प्रतीक है। इस दिन भगवान को प्रसन्न के करने के लिए चातुर्मास  व्रत रखा जाता है।

    आषाढी एकादशी के निमित्त 
     ज्ञानेश्वर की प्रतिमा आलंदी से पंढरपुर को लाई जाती है।इसे मराठी भाषा में 'ज्ञानेश्वर की पालखी' कहा जाता है। यह पालकी आलंदी गांव से पंढरपुर तक लायी जाती है।इस समय लोग पैदल ही पंढरपुर को आते हैं।। और ज्ञानेश्वर की प्रतिमा बैलगाड़ी में लाई जाती है।
    रास्ते में भाविक भक्त इन लोगों के लिए खाना देते हैं। जिसे मराठी भाषा उसे 'पंगत' बोलते हैं।
    लोग पैदल पंढरपुर को जाते हैं। उसे मराठी भाषा में 'पंढरपुरची वारी' ऐसा कहते हैं।
     नामदेव की प्रतिमा नरसी नामदेव से लाई जाती है। 
    और तुकाराम की प्रतिमा देहू गांव से लाई जाती है। 
    एकनाथ की प्रतिमा पैठण से लाई जाती है। 

    निवृत्ति नाथ की प्रतिमा त्रंबकेश्वर से लाई जाती है। 
    और मुक्ताबाई की प्रतिमा यानी की मुक्ताबाई की पालकी  मुक्ताईनगर से लाई जाती है।

    सोपान देव की प्रतिमा सासवड से लाई जाती है।

     और संत गजानन महाराज की प्रतिमा यानी की पालकी शेगांव से लाई जाती है।

    जो इस पालकी की उत्सव सोहला में पैदल चलते हैं। यानी की तीर्थ यात्रा करते हैं। इन तीर्थयात्री को  मराठी में वारकरी कहा जाता है।

    आषाढी एकादशी में लोग संत तुकाराम के अभंग,भजन, और कीर्तन करते हैं।

    और संत ज्ञानेश्वर द्वारा 'विट्ठल' भगवान विठोबा को समर्पित अभंग यानी की गीतों का गायन करते हैं।


     आषाढी एकादशी की पूजा विधि

    आषाढी एकादशी को व्रत रखने वाले लोग सुबह जल्दी उठकर नहाते हैं। और पूजा करने वाले  स्थल की साफ-सफाई करते हैं। वहां भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर विराजमान करते हैं।

    आषाढी एकादशी पर व्रत रखने वाले भक्त लोग चावल, दाल, अनाज, विशेष सब्जियां और मसाले जैसे विशेष खाद्य पदार्थों को खाते नहीं है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन व्रत रखने वाले के जीवन की सभी कठिनाई और चिंताएं दूर हो जाती है।


    एकादशी का मतलब हिंदू पंचांग के अनुसार महीने में दो बार आने वाली 11 वी तिथि होती है। यह तिथि पूर्णिमा और अमावस्या के बाद आती है। एकादशी का व्रत रखने का उद्देश्य मन और तन को नियंत्रण पाना और आध्यात्मिक प्रगति करना है।


    आषाढी एकादशी क्यों मनाई जाती है?


    आषाढी एकादशी जिसे देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। वह भगवान विष्णु के योग निद्रा में चले जाने के के बाद मनाई जाती है।

    आषाढी एकादशी को चातुर्मास की शुरुआत का प्रतीक भी माना जाता है। जो 4 महीने की अवधि के लिए भगवान विष्णु सो जाते हैं। इस दौरान भक्तगण उपवास, प्रार्थना और भक्ति गतिविधियों में लीन होते हैं। आध्यात्मिक विकास की कामना करते हैं। भगवान विष्णु का उनके जीवन के लिए आशीर्वाद मांगते हैं।


    1.भगवान विष्णु का शयनकाल 


    आषाढी एकादशी के समय में भगवान विष्णु शेषनाग पर आराम करते हैं और 4 महीने के लिए योग निद्रा में प्रवेश करते हैं।

    प्राचीन काल से यह माना गया है कि आषाढी एकादशी के दिन भगवान विष्णु अपनी योग निद्रा में प्रवेश करते हैं। जो क्षीरसागर यानी कि दूध के सागर में शेषनाग पर आरंभ करने की एक दिव्या निद्रा है।


    2. चातुर्मास की शरुआत

     
    मान्यता है कि आषाढी एकादशी से ही 4 महीने की यानी कि चातुर्मास की शुरूआत होती है। 
     जो 4 महीने की अवधि में भगवान विष्णु योग निद्रा में सो जाते हैं।

    कहते हैं कि इस दौरान भगवान विष्णु पाताल लोक चले जाते हैं। 

    3. पंढरपुर वारी 


    आषाढी एकादशी के समय भक्त भगवान विष्णु की यानी कि महाराष्ट्र में इसे विट्ठल कहते हैं इनकी पूजा करते हैं। जो भगवान विष्णु का ही एक अवतार माना जाता है।

    इन दिनों भक्तगण भगवान विष्णु का उपवास करते हैं।
     भजन, कीर्तन, गायन करते हैं और आध्यात्मिक गतिविधियों में लीन हो जाते हैं।

    आषाढी एकादशी पर महाराष्ट्र में लाखों भक्तगण पंढरपुर में भगवान विट्ठल यानी कि विष्णु का ही एक अवतार है उनके मंदिर में पुजा , दर्शन करने के लिए पंढरपुर को पैदल ही चलें जाते हैं उसे महाराष्ट्र में 'पंढरपुर की दिंडी' और 'पंढरपुर की वारी' के नाम से जाना जाता है।
     

    4. संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम 


    आषाढी एकादशी पर पंढरपुर वारी में भक्त संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम की पालकी पैदल लेकर पंढरपुर को जाते हैं। और जाते समय अभंग, भजन, कीर्तन गाते हैं।यह पालकी विशेष रूप से सजायी जाती है। इस पालकी में जिस संतों की पालकी है उनकी प्रतिमा को बैलगाड़ी में रखा जाता है। बैलगाड़ी बहुत ही अच्छे तरीके से सजाया जाता है।

    रास्ते में भाविक भक्त, लोग पंढरपुर वारी करनेवाले को भोजन देते हैं। इस भोजन को महाराष्ट्र में 'पंगत' बोलते हैं।


    5.वारकरी संप्रदाय का महत्व 


    आषाढी एकादशी का वारकरी संप्रदाय में बड़ा ही विशेष महत्व माना गया है। 

    महाराष्ट्र में भगवान विट्ठल यानी कि भगवान विष्णु का ही एक अवतार है रूप है उनके दर्शन के लिए भक्त लोग पंढरपुर को चली जाते है।

     यानी कि पंढरपुर की तीर्थ यात्रा वारी करते हैं। इस पंढरपुर की वारी म में सभी धर्म जाति-पाति  के लोग मिलजुलकर पंढरपुर तीर्थ यात्रा को पैदल चले जाते हैं। 

    सभी लोग एक दूसरे को महाराष्ट्र में मराठी में 'माऊली' कहके पुकारते हैं।

    उनके पैर छू लेते हैं और भगवान के नाम स्मरण में लीन रहते हैं। और मनुष्य से मनुष्य जैसा बर्ताव करते हैं। 

    सभी लोग एक दूसरे की सहायता करते हैं। और एक दूसरे के गले मिलते हैं।

    रास्ते में जो भी गांव लगता है वहां के लोग इस तीर्थ यात्रियों के लिए भोजन बनाते हैं।

    यह दृश्य बहुत ही प्यारा लगता है। क्योंकि आजकल लोग दुसरो को कुछ भी फुकेट में देते नहीं है।

    लेकिन इस 'पंढरपुर की वारी' में हजारों लोगों को भोजन देकर भगवान का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
    किसी को भी भोजन कम पड़ता ही नहीं है।

     इसलिए वारकरी संप्रदाय में पंढरपुर की वारी का बहुत ही बड़ा महत्व है।


    6.आत्म चिंतन और आध्यात्मिक विकास 


     आषाढी एकादशी में लोग आत्म-चिंतन करते हैं।

     आत्म चिंतन करने से लोगों को समाधान मिलता है। सुख, शांति, मिलती है।

     कुछ लोग तपस्या और ध्यान करते हैं उनके लिए यह दिन बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है।


    आषाढी एकादशी की कथा


    बहुत पुरानी कहानी है कि एक बार देवऋषि नारद मुनि ब्रह्मा जी से एकादशी के बारे में पूछते हैं। नारद जी ब्रह्मा जी से कहते हैं कि हमें एकादशी के बारे में जानना है। इसलिए हमें एकादशी के बारे में एकादशी का महत्व यानी कि एकादशी की कहानी बताएं।

    तब ब्रह्मदेव नारद मुनि से कहते हैं कि सत्य युग काल में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करता था। उनके राज्य में प्रजा बहुत ही सुखी थी। किसी को किसी बात की भी कमी नहीं थी। लेकिन अचानक उनके राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। यह अकाल पूरे 3 साल तक पड़ा था। इसलिए लोगों का बिना पानी और अन्न के बिना हाल होने लगा।

    अकाल पढ़ने के कारण खेती में अनाज उगना बंद हो गया। इसलिए लोगों को अन्न की कमी महसूस होने लगी। लोग पानी पीने के लिए तरस गए जानवरों का भी बिना चारा पानी के हाल होने लगा।इस दुर्भिक्ष यानी कि अकाल से चारों ओर
     त्राहि-त्राहि मच गई थी। कोई भी हवन, पिंडदान कथा व्रत नहीं कर रहा था।
     जब  तो मुसीबत पड़ी तो धार्मिक कार्यों में मनुष्य की रुचि नहीं रह गई थी। अतः प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी व्यथा बताई।

    राजा को यह स्थिति पहले से ही मालूम थ
     इस अकाल को लेकर राजा पहले से ही चिंता में और दुखी थ
     राजा सोचने लगा कि आखिर मैंने ऐसा कौन सा पाप कर्म किया है। जिसके कारण मुझे यह यातना भुगतानी पड़ रही है।
     इस दुख, कष्ट ,यातना से मुक्ति पाने के लिए राजा अपनी सेना को लेकर जंगल की ओर जाता है।

    जंगल में एक दिन राजा ब्रह्मा जी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचें। राजा ने अंगिरा ऋषि को प्रणाम किया।
      ऋषिवर ने आशिर्वाद दिया और राजा को राज्य के बारे में कुशल क्षेम पूछा।
    ऋषिवर राजा से पूछा कि तुम मेरे आश्रम में आने का प्रयोजन बताओ और इस जंगल में क्यों आए हो।

    तब राजा ने कहा की महात्मन जी मैं सभी प्रकार के धर्म का पालन करता हूं। फिर भी मेरे राज्य में अकाल क्यों पड़ा है। 
    आखिर किस कारण से ऐसा हो गया है। कृपया इसका समाधान करें। 
    यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा कि हे राजन! सब युगों में से उत्तम यह सतयुग है।
     इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।

    सतयुग में धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है।
     ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य को तप करने का अधिकार नहीं है। लेकिन राजन तुम्हारे राज्य में एक शुद्र तपस्या कर रहा है।

     इसी कारण आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। और घोर अकाल पड़ा हुआ है।
     जब तक वह शुद्र मर नहीं जाता।
     तब तक यह अकाल यानी कि दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा।
     अकाल(दुर्भिक्ष )की शांति उस शुद्र तपस्वी को
     मारने से ही संभव है।

    परंतु राजा बहुत ही दयावान था। उसे कोई भी अपराध न करने वाला शुद्र तपस्वी को मारने के लिए मन तैयार नहीं हो रहा था।
     उन्होंने कहा कि है देव ऋषि मैं उसे निरपराध को मार नहीं सकता।
     यह मेरे मन को अच्छा नहीं लगता कृपा करके आप मुझे कोई और उपाय बताएं।

     तब महर्षि अंगिरा ने बताया कि हे राजन आप आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करें।
     इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा यानी की बारिश होगी।

     राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए। और चारों वर्णों सहित देवशयनी एकादशी का यानी की पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार बारिश हुई। और  पूरा राज्य धन धान्य से परिपूर्ण हो गया।


    एकादशी कौन थी


    एकादशी एक देवी हैं। एकादशी का जन्म भगवान विष्णु के शरीर से हुआ था। 
    उन्हें उत्पन्ना एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि एकादशी का जन्म मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को हुआ था।

    मान्यता है कि भगवान विष्णु ने स्वयं ही युधिष्ठिर को एकादशी माता के जन्म की कहानी सुनाई थी।

    एकादशी देवी की जन्म की कहानी: 

    एक बार भगवान विष्णु और मुर राक्षस के बीच में भयंकर युद्ध हो रहा था।
     युद्ध करते-करते भगवान विष्णु थक गए थे। और एक गुफा में आरंभ करने चले गए।

    मुर राक्षस ने भगवान विष्णु को एक गुफा में सोया हुआ देखकर उन पर हमला करने की कोशिश की।
     तभी भगवान विष्णु के शरीर से एक सुंदर कन्या प्रकट हुई। उस कन्या ने मुर राक्षस को युद्ध के लिए ललकारा और युद्ध करके उसे मार डाला।

    जब भगवान विष्णु की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि उस कन्या ने मुर राक्षस का वध कर दिया है।
     वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उस कन्या को वरदान दिया कि वह एकादशी के नाम से जानी जाएगी।
     
     और उसका व्रत करने से सभी कष्ट दूर होंगे और मोक्ष की प्राप्ति होगी।
     इसलिए एकादशी देवी को भगवान विष्णु का अंश माना जाता है। और उनके सम्मान में एकादशी का व्रत रखा जाता है।



    श्री कृष्ण का नाम कैसा पड़ा विठ्ठल 


    पौराणिक कथा के अनुसार एक बार देवी रुक्मिणी ने भगवान श्री कृष्ण को राधा के साथ प्रेम करते वक्त देख लिया।

    इसलिए देवी रुक्मिणी श्री कृष्ण से रूठ कर द्वारका से दिंडोरी वन में चली गई।

    भगवान श्री कृष्णा रुकमणी को ढूंढते हुए दिंडोरी वन में चले आए।

    तभी श्री कृष्ण को वहां दिंडोरीवन में अपने भक्त पुंडलिक की याद आई। और वे उनसे मिलने के लिए पुंडलिक की आश्रम में चले गए।


    1.भक्त पुंडलिक की याद


    भगवान विष्णु का अवतार श्री कृष्णा है और विट्ठल भगवान ही श्री कृष्ण का एक रूप है। विट्ठल भगवान कृष्ण के भक्त पुंडलिक के प्रति  प्रेम और समर्पण के कारण इस रूप में प्रकट हुए थे।

    पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा में इतना लीन था कि जब श्री कृष्णा उनसे मिलने गए थे। तो उन्होंने श्री कृष्ण को एक ईंट फेंक कर दी उन्होंने कहा कि मैं अभी माता-पिता की सेवा कर रहा हूं इसलिए आप इस ईंट पर खड़े हो जाओ।

    फिर भक्त पुंडलिक माता-पिता की सेवा करने के बाद श्री कृष्ण के पास चलें गये।

    और भगवान श्री कृष्ण से आदरपूर्वक कहां की हम भक्तों के लिए आप इसी ईंट पर खड़े रहे।

    और हमारे ऊपर आपकी कृपा बरसाए रखें।
     श्री कृष्ण ने भक्त पुंडलिक को तथास्तु कहा।
     और 28 युग ईंट पर खड़े रहे।
     अपने कमर पर हाथ रख कर खड़े रहे इसी वजह से श्री कृष्ण को विट्ठल के नाम से जाना गया। 

    विठ्ठल शब्द 'विट' (ईंट)और 'ठल' (खड़ा होना) से बना हुआ है। जिसका अर्थ है ईंट पर खड़ा


    विट्ठल भगवान को पंढरपुर में निवास करने वाला माना जाता है। जहां भक्त उनकी पूजा करते हैं।


    आषाढी एकादशी का स्टेटस 



    1.काया ही पंढरी आत्मा हा विठ्ठल 
    नांदतो केवल पांडुरंग 
    आषाढी एकादशीच्या 
     हार्दिक शुभेच्छा!

    2.अवघा रंग एक झाला 
    रंगी रंगला श्रीरंग 
    मी तु पण गेले वाया 
    पाहता पंढरीच्या राया 
    भागवत एकादशी निमित्त 
    हार्दिक शुभेच्छा 

    3.भाळी चंदनाचा टिळा 
    तुळशी माळ गळा 
    नित्य आम्हा लागला 
    पांडुरंगाचा लळा 
    भागवत एकादशी निमित्त 
    हार्दिक शुभेच्छा 

    4.मुखी हरी नाम, चाले वाट पंढरपूर 
    तल्लीन भक्तीत, माऊलींचा गजर 
    भक्त जमती सारे नदीच्या तीरावर 
    कानडा राजा,भेटिस उभा विटेवर 
    भागवत एकादशी निमित्त 
    हार्दिक शुभेच्छा 

    5. भिडे आसमंती ध्वजा वैष्णवांची 
    उभी पंढरी आज नादावली 
    तुझे नाव ओठी, तुझे रूप ध्यानी 
    जीवाला तुझी आस गा लागली
    जरी बाप साऱ्या जगाचा परी तू 
    आम्हा लेकरांची विठू माऊली 
    सर्वत्र अजा 
    भागवत एकादशी 
     निमित्त सर्वांना 
     मंगलमय शुभेच्छा!


    Conclusion: निष्कर्ष 


    आषाढी एकादशी मुख्य रूप से महाराष्ट्र में मनाई जाती है। महाराष्ट्र के पंढरपुर गांव में विष्णु का ही एक अवतार है जिसे विट्ठल कहा जाता है। श्री कृष्ण को ही भक्त पुंडलिक ने दी गई ईंट पर खड़े होने से विट्ठल नाम पड़ा। तभी से महाराष्ट्र में लोग आषाढी एकादशी पर 'पंढरपुर वारी' यानी की तीर्थयात्रा करते हैं। आषाढ़ एकादशी 2025 (Aashadi Ekadashi 2025)कब है? और आषाढी एकादशी क्यों मनाई जाती है?पुजा,कथा, इतिहास इस के बारे में इस ब्लॉग आर्टिकल में हम ने आपको बताया है।ऐसे ही आर्टिकल पढ़ें ने के लिए हमें फॉलो करें।🙏 

    FAQ:

    1. आषाढी एकादशी क्यों मनाई जाती है? 


    आषाढी एकादशी जिसे देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। इस समय भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं।इसी की कारण आषाढी एकादशी मनाई जाती है।
    यह दिन चातुर्मास की शुरुआत का भी प्रतीक है,जो चार महीने की अवधि में भगवान विष्णु सो जाते हैं। इस दौरान भक्त उपवास, प्रार्थना और आध्यात्मिक गतिविधियों में संलग्न होते है। आत्म-चिंतन और आध्यात्मिक की विकास की कामना करते हैं।


    2. आषाढी एकादशी के पीछे की क्या कहानी है? 


    धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर मारा गया था। उसी दिन से भगवान विष्णु 4 मास के लिए क्षीरसागर में शेषनाग पर योग निद्रा में सो जाते हैं। और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जगाते है।
      पौराणिक कथा के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे थे।

    3. आषाढी एकादशी का इतिहास क्या है


    कहते हैं कि भगवान विष्णु और राक्षस मुर के बीच में युद्ध हुआ था। जब विष्णु युद्ध में बहुत थक चुके थे। तब वे आराम करने के लिए एक गुफा में चले गये।
     जब मुर राक्षस को यह मालूम हुआ तो उन्होंने उन पर हमला करने का सोचा।
    लेकिन तभी भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या उत्पन्न हुई। और उन्होंने राक्षस मुर को मार डाला। इसे ही देवी एकादशी की रूप में जाना जाता है।


    4. आषाढी एकादशी की कथा 

    सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट के राज्य में जब अकाल पड़ा था।
     इसका कारण उनके राज्य में एक शुद्र तपस्या कर रहा था। इसके बारे में राजा को देवऋषि अंगिरा ने बताया था। यह भी कहा था कि उसे शूद्र तपस्वी को मारना पड़ेगा। लेकिन राजा दयालु था। उन्होंने दूसरा उपाय बताने के लिए देव ऋषि से विनंती की तब देव ऋषि अंगिरा  ने कहा कि हे राजन, आप एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करें। और इस व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई। और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया और अकाल खत्म हो गया।


    5. श्री कृष्ण का नाम क्यों पड़ा विट्ठल?


    एक बार जब रुक्मणी श्री कृष्ण को राधा के साथ देखा तो वह उनसे रूठ कर दिंडोरी है वन में चली गयी। श्री कृष्णा उन्हें ढूंढते हुए दिंडोरी वन में गए। वहां जाकर श्री कृष्ण को अपने परम भक्त पुंडलिक की याद आ गई। तब वे भक्त पुंडलिक के आश्रम में चले गए। लेकिन भक्त पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा करने में लीन था।
    उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि आप इस ईंट पर खड़े हो जाओ। जब भक्त पुंडलिक माता-पिता की सेवा करने के बाद श्री कृष्ण से कहते हैं कि आप हम जैसे भक्तों लिए यही इस ईंट पर खड़े रहो। तब से भगवान श्री कृष्ण 28 युग तक ईंट पर खड़े रहे। इसलिए श्री कृष्ण का नाम विठ्ठल पड़ा।

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